धीरे - धीरे यह अहसास हो रहा है ,
वो मुझसे अब कहीं दूर हो रहा है।
कल तक था जो मुझे सबसे अज़ीज़ ,
आज क्यों मेरा रकीब हो रहा है।
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इन्तहां हो रही है खामोशी की ,
वफाओं पे शक होने लगा अब कहीं।
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जिंदगी है दोस्त हमारी ,
कभी इससे दुश्मनी ,
कभी है इससे यारी।
रूठने - मनाने के सिलसिले में ,
हो गई कहीं और प्यारी ।
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इस इज़हार में इकरार
नज़रंदाज़ सा है कहीं ,
थामते रह गए ज़रूरत को ,
चाहत का नामोनिशान नहीं।
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ये बहुत पुरानी रचना है किसी के कहने पर फिर से पोस्ट कर रही हूँ ।
टिप्पणियाँ
मार्मिक रचना .
सादर
तुमने मेरी बात को सकारात्मक लिया उसके लिए शुक्रिया । थोड़ा झिझक रही थी लिखते हुए । लेकिन मैंने देखा है अपनी पुरानी पोस्ट पर तुमको तो मालूम है कि तुम मेरी पुरानी पाठक हो । इस लिए मुझे थोड़ा जानती होंगी ।
अभी ठीक है ये तुमने ऊपर की पंक्तियों से मिलाते हुए स्त्रीलिंग में लिख दिया था । ऐसा मुझे लगता है ।अभी परफेक्ट । 👌👌👌👌👌
आदरणीय ज्योति जी बहुत ही सुंदर रचना