खोज करती हूँ उसी आधार की
फूंक दे जो प्राण में उत्तेजना
गुण न वह इस बांसुरी की तान में ।
जो चकित करके कंपा डाले हृदय
वह कला पायी न मैंने गान में ।
जिस व्यथा से रो रहा आकाश यह ,
ओस के आँसू बहाकर फूल में ।
ढूंढती इसकी दवा मेरी कला ,
विश्व वैभव की चिता की धूल में ।
डोलती असहाय मेरी कल्पना
कब्र में सोये हुओ के ध्यान में ।
खंडहरों में बैठ भरती सिसकियाँ
विरहणी कविता सदा सुनसान में ।
देख क्षण -क्षण में सहमती हूँ अरे !
व्यापनी क्षणभंगुरता संसार की ।
एक पल ठहरे जहाँ जग हो अभय ,
खोज करती हूँ उसी आधार की ।
-_____________-
आगे इस रचना को प्रकाशित करते समय शब्द इधर उधर हो गए और दोबारा इसे लिखना पड़ा । ये रचना बहुत पुरानी मेरे मित्र की लिखी है जो मेरे लिए प्रेरणा स्रोत है ,आगे इससे जुड़ी बातें लिख चुकी हूँ ।
गुण न वह इस बांसुरी की तान में ।
जो चकित करके कंपा डाले हृदय
वह कला पायी न मैंने गान में ।
जिस व्यथा से रो रहा आकाश यह ,
ओस के आँसू बहाकर फूल में ।
ढूंढती इसकी दवा मेरी कला ,
विश्व वैभव की चिता की धूल में ।
डोलती असहाय मेरी कल्पना
कब्र में सोये हुओ के ध्यान में ।
खंडहरों में बैठ भरती सिसकियाँ
विरहणी कविता सदा सुनसान में ।
देख क्षण -क्षण में सहमती हूँ अरे !
व्यापनी क्षणभंगुरता संसार की ।
एक पल ठहरे जहाँ जग हो अभय ,
खोज करती हूँ उसी आधार की ।
-_____________-
आगे इस रचना को प्रकाशित करते समय शब्द इधर उधर हो गए और दोबारा इसे लिखना पड़ा । ये रचना बहुत पुरानी मेरे मित्र की लिखी है जो मेरे लिए प्रेरणा स्रोत है ,आगे इससे जुड़ी बातें लिख चुकी हूँ ।
टिप्पणियाँ