धीरे - धीरे यह अहसास हो रहा है ,
वो मुझसे अब कहीं दूर हो रहा है।
कल तक था जो मुझे सबसे अज़ीज़ ,
आज क्यों मेरा रकीब हो रहा है।
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इन्तहां हो रही है खामोशी की ,
वफाओं पे शक होने लगा अब कहीं।
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जिंदगी है दोस्त हमारी ,
कभी इससे दुश्मनी ,
कभी है इससे यारी।
रूठने - मनाने के सिलसिले में ,
हो गई कहीं और प्यारी ।
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इस इज़हार में इकरार
नज़रंदाज़ सा है कहीं ,
थामते रह गए ज़रूरत को ,
चाहत का नामोनिशान नहीं।
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ये बहुत पुरानी रचना है किसी के कहने पर फिर से पोस्ट कर रही हूँ ।
टिप्पणियाँ
क्या बादल में ही
छिप कर रह जायेंगे ,
या जमीं को भी
कभी हसीं बनायेंगे l
जरुर बनायेंगे ...बस हम अपना सार्थक प्रयास करते रहें ....!
जब भी कोशिश की
पकड़ने की
वक़्त छीन ले गया ,
एक पल को
रूकने नही दिया
waah !
सादर
पकड़ने की
वक़्त छीन ले गया ,
एक पल को
रूकने नही दिया...बहुत खूबसूरती से अपने भावो को सजाया है....
क्या बादल में ही
छिप कर रह जायेंगे .........
मन में प्रबल इच्छा हो तो एक दिन सपने पूरे होते हैं ..हौसले बुलंद रखीये..
बहुत सुन्दर रचना सार्थक |
MITRA-MADHUR: ज्ञान की कुंजी ......
क्या बादल में ही
छिप कर रह जायेंगे ,
या जमीं को भी
कभी हसीं बनायेंगे...
कितनी खूबसूरती से कही है ये बात...
ज्योति जी, बहुत बहुत बधाई.
मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
http://seawave-babli.blogspot.com/
http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com/
क्या बादल में ही
छिप कर रह जायेंगे ........
बेहद उम्दा रचना
apka mere is blog par bhi swagat hai.
http://anamka.blogspot.com/2011/08/blog-post_20.html
मन मोहक इन्द्रधनुषी रंग प्रस्तुत कर दिया है.
सुन्दर प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत आभार.