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बूंदे ओस की

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ओस की एक बूँद नन्ही सी चमकती हुई अस्थाई क्षणिक रात भर की मेहमान ___ जो सूरज के आने की प्रतीक्षा कतई नही करती , चाँद से रूकने की जिद्द करती है , क्योंकि दूधिया रात मे उसका वजूद जिन्दा रहता है , सूरज की तपिश उसके अस्तित्व को जला देती है ।

शाख के पत्ते ...

हम ऐसे शाख के पत्ते है  जो देकर छाया औरो को  ख़ुद ही तपते रहते है , दूर दराज़ तक छाया का  कोई अंश नही , फिर भी ख्वाबो को बुनते है  उम्मीदों की इमारत बनाते है , और ज्यो ही ख्यालो से निकल कर  हकीकत से टकराते है  ख्वाबो की वह बुलंद इमारत  बेदर्दी से ढह जाती है , तब हम अपनी तकदीर को  वही खड़े हो ...... कोसते रह जाते है । 

चन्द सवाल है जो चीखते रह गये ...

हमारे दरम्यान के सभी रास्ते यकायक बंद हो गये क्या कहे ,न कहे हम इस सवाल पर अटक गये । हम जानते है ये खूब ,दगा फितरत मे नही तुम्हारे कोशिश तो थी  मिटाने की ,मगर दाग फिर भी रह गये । जब भी बढ़कर उदासी मे  तुम्हे गले लगाना चाहा, तभी कुछ चुभने लगा और कदम ठहर गये । सब कुछ ख़ामोशी मे दबकर तो रह गया मगर चंद सवाल है ,जो चीखते रह  गये । हर बात गहरे यकीन का अहसास दिलाती है पर वो नही कभी कह पाये जो तुम कह गये ।

दुर्दशा ?

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जीवन की अवधि और दुर्दशा चीटी की भांति होती जा रही है , कब मसल जाये कब कुचल जाये , कब बीच कतार से अलग होकर अपनो से जुदा हो जाये । भयभीत हूँ सहमी हूँ मनुष्य जीवन आखिर अभिशप्त क्यों हो रहा ? कही हमारे कोसने का दुष्परिणाम तो नही या कर्मो का फल ? ज्योति

बूंद-- बूंद

जिंदगी इतनी आसानी से देती कहाँ हमे कुछ , संघर्षों के बिना है होता हासिल कहाँ हमे कुछ । --------------- गम अज़ीज़ हो गया खुशी को नकार के , उठा कर हार गये हम जब नखरे  बहार के  । *****************

अधूरी आस

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ख्यालो की दौड़ कभी थमती नही कलम को थाम सकू वो फुर्सत नही , जब भी कोशिश हुई पकड़ने की वक़्त छीन ले गया , एक पल को भी रूकने नही दिया , सोचती हूँ इन्द्रधनुषी रंग सभी क्या बादल में ही छिप कर रह जायेंगे , या जमीं को भी कभी हसीं बनायेंगे l

धीरे --धीरे ...

टूट रहे सारे  रिश्ते कल के धीरे- धीरे जुड़ रहे सारे रिश्ते आज के धीरे - धीरे , समय बदल गया सोच बदल गई मंजिल की सब दिशा बदल गई , हम ढल रहा है अब मै  में धीरे  -धीरे साथ रहने वाले  अब कट रहे  धीरे  -धीरे , सबका अपना आसमान है सबकी अपनी जमीन हो  गईं , एक छत  के नीचे  रहने वालों की  अब कमी हो गई , रीत बदल रही धीरे - धीरे प्रीत बदल रही  धीरे - धीरे ।

बंजारों की तरह ....

बंजारों की तरह अपना ठिकाना हुआ रिश्ता हर शहर से अपना पुराना हुआ, स्वभाव ही है नदियों का बहते रहना मौजो को रुकना कब गवारा हुआ , बेजान से होते है परिंदे बिन परवाज के उड़े बिना उनका कहाँ गुजारा हुआ , चाह है जिसे  मंजिल पाने की रास्ता ही उनका सहारा हुआ  ।

दर्द

आहिस्ता - आहिस्ता दर्द घर में पैर जमाता रहा _ और कुछ हल्की कुछ गहरी छाप अपनी शक्ल की छोड़ता रहा । हम इसकी आमद से घबराते रहे , ये अपना राज फैलाता रहा ।

क्या.............?

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  क्या .......? क्या  कहा  जाये  क्या  सुना  जाये  इस  क्या  से  आगे   यहाँ  कैसे  बढ़ा  जाये समझ  आता  नहीं  , क्योंकि  ये  दुनिया  अब   पहले  जैसे  सीधी  रही  नहीं  , तभी  आसान  बात  भी  मुश्किल  नज़र  आती  है  , किसी  से  कहे  कुछ  उसे  समझ  कुछ  और  आती  है  ।  शायद  इसलिए  ज़िन्दगी  अब , लम्हों  में  बिखर  जाती  है  ।  जिंदगी यूँ  ही कतरा -कतरा  गुजारी जाती है । - ज़िन्दगी यूँ ही कतरा कतरा गुजार - ज़िन्दगी यूँ
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होकर भी साथ नहीं ख्वाब  वही   ख्वाहिश  वही  अल्फाज  वही   ज़ुबां  वही  , फिर  रास्ते  कैसे   जुदा  है  सफ़र  के  , कदम  साथ  अपने  दे  रहे  क्यों  नहीं  । कही  तो  कुछ   खलिश  है  मन में  जो दिल चाहकर  भी  मिल  रहा  नहीं  । 
नामुमकिन को मुमकिन करना सबके वश का काम नहीं, हुई सफलता उसी को हासिल हार भी जिसके लिए हार नही । .................... अच्छा हुआ तो प्यार में बुरा हुआ तो प्यार में, फिर भी प्यार ,प्यार ही रहा चाहे जो हुआ हो प्यार में ।

पतवार

शीर्षक   ---पतवार ................. उम्र गुजर जाती है सबकी लिए एक ही बात , सबको देते जाते है हम आँचल भर सौगात , फिर भी खाली होता है क्यों अपने मे आज ? रिक्त रहा जीवन का पन्ना जाने क्या है राज  ? बात बड़ी मामूली सी है पर करती खड़ा फसाद , करके संबंधों को विच्छेदित है बीच में उठाती दीवार । सवालों में उलझा हुआ ये मानव संसार गिले - शिकवे की अपूर्णता पर घिरा रहा मन हर बार । रहस्य भरा कैसा अद्भुत है मन का ये अहसास , रोमांचक किस्से सा अनुभव इस लेन- देन के साथ , जीवन की नदियां  मे चल रही है पतवार , कभी मिल गया किनारा कभी  डूबे  बीच मझधार । . ....  .................. ज्योति सिंह

मंजर

जरा ठहर कर देख तो लेते, मंज़र क्या है आगे का ! बहुत जरूरी रहे संभलना , किसको पता इरादों का ! 
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गुमां नहीं रहा जिंदगी का जिंदगी पे अधिकार नही रहा इसीलिए उम्र का अब कोई हिसाब नही रहा , आज है यहाँ , कल जाने हो कहाँ साथ के इसका एतबार नही रहा , मोम सा दिल ये पत्थर न बन जाये हादसों का यदि यही सिलसिलेवार रहा , जुटाते रहें तमाम साधन हम जीने के लिए मगर सांस जब टूटी साथ कुछ नही रहा , देख कर तबाही का नजारा हर तरफ अब बुलंद तस्वीर का ख्वाब नही रहा , वर्तमान की काया विकृत होते देख भविष्य के सुधरने का गुमां नही रहा , सोचने को फिर क्या रह जाएगा बाकी हाथ में यदि कोई लगाम नही रहा l

सन्नाटा....

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चीर कर सन्नाटा श्मशान का सवाल उठाया मैंने , होते हो आबाद हर रोज कितनी जानो से यहाँ फिर क्यों इतनी ख़ामोशी बिखरी है क्यों सन्नाटा छाया है यहाँ , हर एक लाश के आने पर तुम जश्न मनाओ आबाद हो रहा तुम्हारा जहां यह अहसास कराओ .

आदमी.....

आदमी जिं दगी के जंगल में अपना ही करता शिकार है , फैलाता है औरो के लिए जाल और फसता खुद हर बार है । .......................

युग परिवर्तन

युग परिवर्तन न तुलसी होंगे, न राम न अयोध्या नगरी जैसी शान . न धरती से निकलेगी सीता , न होगा राजा जनक का धाम . फिर नारी कैसे बन जाये दूसरी सीता यहां पर , कैसे वो सब सहे जो संभव नही यहां पर . अपने अपने युग के अनुसार ही जीवन की कहानी बनती है , युग परिवर्तन के साथ नारी भी यहॉ बदलती है ।

हम.......

हम ........ मै को अकेले रहना था  हम को साथ चलना था एक को खुद के लिए जीना था  एक को सबके लिए जीना था ,  इसलिए सबकुछ होते हुए भी   मै यहाँ कंगाल रहा  कुछ नही होते हुए भी  हम मालामाल रहा ।

आखिर ऐसा हुआ क्यों ?

आखिर ऐसा हुआ क्यो ? सही ही गलत का है हकदार क्यों ? बेगुनाह को ही सजा हर बार क्यों ? गीता और कुरान का मान घटा क्यों ? सच जानते हुए भी झूठ चला क्यों ? यहाँ धर्म और ईमान डगमगाया क्यों ? यहाँ गलत करने का डर मिट गया क्यों ? न्याय के आसरे फिर रहे कोई क्यों ? इंसाफ के लिए भटके इधर -उधर क्यों ? खून की जंग चल रही है क्यों ? खून का रंग बदल रहा है क्यो ? मानवता का इतिहास पलट गया क्यों ? सब कब कैसे बदल गया क्यों ? ऐसा होना तो नही चाहिये ,फिर हुआ क्यों ? यकीन को खोना तो नहीं चाहिए ,फिर खोया क्यों ? इतने मजबूर हालात है क्यो ? उलझे-उलझे सवाल है क्यो ? सही ही गलत का है हकदार क्यो ? बेगुनाह को ही सजा हर बार क्यो ?

लेन देन

जीवन की रीत यही है जो देगा उसे ही मिलेगा बीज बो और फूल खिलेगा वृक्ष रोपो तो फल मिलेगा , लेन-देन की शृंखला ही जीवन को परिपूर्ण करेगी , सुख -वैभव का आनंद देकर जीवन मे उल्लास भरेगी । ज्योति सिंह

अपनी राह .....

ये रास्ते है अदब के कश्ती मोड़ लो , माझी किसी और साहिल पे चलो । हम है नही खुदा न है खास ही , राहे - तलब अपनी कुछ है और ही । नाराजगी का यहाँ सामान नही बनना , वेवजह खुद को रुसवा नही करना । बे अदब से गर्मी माहौल में बढ़ जायेगी , कारण तकलीफ की हमसे जुड़ जायेगी । हमें हजम नही होती इतनी अदब अदायगी , चलते है साथ लिए सदा सच्चाई -सादगी । फितरत हमें खुदा ने बख्शी है फकीर की , ले चलो मोड़ कर मुझे अपनी राह ही ।
छोटी सी दो रचनाये --------------------------- महंगाई से अधिक भारी पड़ी हमको हमारी ईमानदारी , महंगाई को तो संभाल लिया हमने इच्छाओ से समझौता कर , मगर ईमानदारी को संभाल नही पाये किसी समझौते पर ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,, मेरी हर हार जीत साबित हुई , बीते समय की सीख साबित हुई l

हमारे प्यारे त्यौहार

किसी भी त्यौहार की गरिमा को बनाये रखना जरूरी है ,क्योंकि ये त्यौहार हमारी सभ्यता और संस्कृति को दर्शाते है ,ये हमें अपनी मातृभूमि से जोड़कर रखते है ,आपसी बैर को मिटा कर दोस्ती का हाथ बढ़ाने के लिए प्रेरित करते है ,बुराई को नष्ट कर अच्छाई की राह पे ले जाते है ,त्यौहार हमारे जीवन को खुशहाल और रिश्तों को मजबूत बनाये रखने का जरिया है ,इसी की वजह से हमें दफ्तरों और विद्यालयों से ढेरो छुट्टियां मिलती है , जिससे व्यस्तता घटती है तथा खुशियों को बाटने का अवसर हाथ लगता है ,ये जीवन में उत्साह व उल्लास के रंग भरते है ,जिससे जीने का हौसला दुगुना हो जाता है ,भला सोचिये क्या किसी और देश की मिटटी इतनी रंग बिरंगी है ,जितनी हमारे भारत देश की ,त्यौहार जीने का आधार है ,तभी तो हमें इससे प्यार है ,इसलिए हम सभी भारत वासियों की जिम्मेदारी बनती है कि इन त्योहारों की रौनक को बरकरार रखे ,इसके महत्व को कम न होने दे ,कितनी ही महंगाई क्यों न हो पकवानों को चखने का मौका इन्ही अवसरों पर मिलता है ,नूतन परिधान लेने का मौका हाथ लगता है ,घरो की सफाई भी हो जाती है इसी बहाने ,कितने फायदे है इनके होने से ,इनके स्वागत की तैय

न्याय का हिसाब

जब जब मुझे छोटा बनाया गया मेरे तजुर्बे के कद को बढ़ाया गया जब जब हँसकर दर्द सहा तब तब और आजमाया गया , समझने के वक्त समझाया गया क्या से क्या यहां बनाया गया , न्याय का भी अजीब हिसाब रहा गलत को ही सही बताया गया । ज्योति सिंह

खोज करती हूं उसी आधार की

फूँक दे जो प्राण में उत्तेजना गुण न वह इस बांसुरी की तान में , जो चकित करके कंपा डाले हृदय वह कला पायी न मैंने गान में । जिस व्यथा से रो रहा आकाश यह ओस के आंसू बहा के फूल में । ढूंढती इसकी दवा मेरी कला विश्व वैभव की चिता की धूल में । डोलती असहाय मेरी कल्पना कब्र में सोये हुओ के ध्यान में । खंडहरों में बैठ भरती सिसकियाँ विरहणी कविता सदा सुनसान में । देख क्षण -क्षण में सहमती हूँ अरे ! व्यापिनी क्षणभंगुरता संसार की । एक पल ठहरे जहाँ जग हो अभय खोज करती हूँ उसी आधार की ।  _________________________ ये रचना उन दिनों की है जब उच्चमाध्मिकस्तर में अध्यन करते हुए ,हमारी मित्र मंडली के ऊपर लिखने का जूनून सवार था ,हम सभी खूब लिखते रहे ,हमारी रचनाएँ किताबो में भी छपती रही ।

मिट्टी की आशा ....

सब चीजों को हमने बस ,पाने का मन बनाया , जब हाथ नही वो आया तो मन दुख से भर आया । जीतकर दुनिया भी सिकंदर कुछ नही यहां भोग पाया , हुकूमत की लालसा में उसने बस लाशों का ढेर लगाया । बहुत ज्यादा की आस में उसने खुद को सिर्फ भटकाया , क्षण भर को आराम न मिला ले डूबी उसे मोहमाया । मिट्टी की ही आशा है मिट्टी की ही है काया , फिर क्यों जरूरत से ज्यादा है, तूने लालच जगाया । मिले जितना उतने में ही आनंद जिसने भरपूर उठाया , सुख मिला जीवन का उसी को मेहनत से जिसने कमाया । ज्योति सिंह

आदमी

शीर्षक  --आदमी मुनाफे के लिए आदमी  व्यापार बदलता है, खुशियों के लिए आदमी व्यवहार बदलता है , ज़िन्दगी के लिए आदमी  रफ्तार बदलता है , देश के लिये आदमी  सरकार बदलता है , तरक्की के लिए आदमी  ऐतबार बदलता है, दुनिया के लिए आदमी  किरदार बदलता है । और इसी तरह बदलते बदलते एक रोज यही आदमी  ये संसार  बदलता है 

तुम बस अपनी ही कहते हो

तुम  बस अपनी ही कहते हो औरो की कब सुनते हो ? औरो की जब सुनोगे बात तभी तो समझोगे । न्याय एक पक्ष का नही दोनों पक्षों का होता है , उसे तो तानाशाही कहते है जहाँ कोई अपनी मनमानी करता है । कुछ कहने से पहले ही सबको चुप करा देते हो , अपनी कमियों को तुम चिल्ला कर दबा देते हो तुम क्या जानो बात तुम्हारी सब पर क्या असर छोड़ जाती है , पत्थरों से कौन टकराये __ कह कर सिर अपना बचाती है ।

मै दुर्गा बनकर आऊँगी ......

तुम्हारे सभी फैसलों पर मै  मोहर लगाती जा रही हूं , नारी हूँ ,इसलिए सभी नारी धर्म निभा रही हूं , ये अलग बात है सोचती हूँ मै ईसा की तरह , तभी नादान समझकर माफ करती जा रही हूँ , पर इस भरम में न रहना किं मै सूली पर भी चढ़ जाऊँगी , तुम्हारे जुर्म के आगे मै अपना सर झुकाऊँगी । जब तक तुम हद मे हो मै साथ चलती जा रही हूं , जिस दिन तुम महिषासुर बने मै दुर्गा बनकर आऊँगी मै दुर्गा बनकर आऊँगी  ।

मै औरत ही बनकर रह गई ____

जिसके  लिये भी अच्छा सोचा उसी के लिए बुरी बन गई , छोड़ दे सारी दुनिया की फिक्र मन ने कहा ,पर आदत वही रह गई । हंगामा करना भाता न था तभी चुप रहकर सब सह गई , औरों को ही हमेशा देती रही मैं कैसे मांगू ?ये सोचती ही रह गई । मर्यादा में बंधी रह गई लाज को ओढ़े रह गई , संस्कार मिले थे चुप रहने के तो सही होकर भी गलत समझी गई । लोगों को भरम था मैं खुश हूं दर्द की नुमाईश जो की नही गई , सारी जिम्मेदारी कंधो पर धर कर सब भूल की सजा भी मुझे दे दी गई । मै औरत हूँ या फिर कुछ और जो सबकी उम्मीदे मुझसे जुड़ गई , मै भी जीना चाहती थी इंसान बनकर पर मै औरत ही बनकर रह गई ।

बचपन की तस्वीरे

काव्यांजलि बीते दिनो की हर बात निराली लगती है बचपन की हर तस्वीर सुहानी लगती है . पहली बारिश की बूंदो मे मिलकर खूब नहाते थे , ढेरो ओले के टुकड़ों को बीन बीन कर लाते थे . इन बातो मे शैतानी जरूर झलकती है बचपन की हर तस्वीर सुहानी लगती हैै . सावन के आते ही पेड़ो पर झूले पड़ जाते थे , बारिश के  पानी मे बच्चे कागज की नाव बहाते थे , बिना सवारी  की वो नाव भी अच्छी लगती है बचपन की हर तस्वीर सुहानी लगती है । पल में रूठना पल में मान  जाना बात बात में मुँह का फूल जाना , जिद्द में अपनी बात मनवाना हक से सारा सामान जुटाना , खट्टी मीठी बातों की हर याद प्यारी लगती है बचपन की हर तस्वीर सुहानी लगती है । कच्ची मिट्टी की काया थी मन मे लोभ न माया थी , स्नेह की बहती धारा थी सर पर आशीषों की छाया थी , चिंता रहित बहुत ही मासूम सी जिंदगी लगती है बचपन की हर तस्वीर सुहानी लगती है।
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