जीवन की अवधि
एवं दुर्दशा
चींटी की भांति
होती जा रही है
कब मसल जाये
कब कुचल जाये
कब बीच कतार से
अलग होकर
अपनो से जुदा हो जाये ,
भयभीत हूँ
सहमी हूँ
चिंतित हूँ
मनुष्य जीवन आखिर
अभिशप्त क्यो हो रहा है ?
कही हमारे कोसने का
दुष्परिणाम तो नहीं
या फिर
कर्मो का फल ?
9 टिप्पणियां:
सही कह रही हो हम डर डर कर जीने के लिए मजबूर हैं ।
सच है, मनुष्य ही नहीं हर प्राणी डरा हुआ है।
कटु सत्य
कर्म गति है ये
कही हमारे कोसने का
दुष्परिणाम तो नहीं
या फिर
कर्मो का फल ?
कुछ समझ में नहीं आ रहा !
के हमारे कर्म ही हैं जो सामने आ रहे हैं ...
बोया बबूल तो ...
सही कहा आपने
सही कहा आपने..आज हम सभी डर डर कर ही जी रहे हैं।
चिंतनीय ।
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