धीरे - धीरे यह अहसास हो रहा है ,
वो मुझसे अब कहीं दूर हो रहा है।
कल तक था जो मुझे सबसे अज़ीज़ ,
आज क्यों मेरा रकीब हो रहा है।
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इन्तहां हो रही है खामोशी की ,
वफाओं पे शक होने लगा अब कहीं।
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जिंदगी है दोस्त हमारी ,
कभी इससे दुश्मनी ,
कभी है इससे यारी।
रूठने - मनाने के सिलसिले में ,
हो गई कहीं और प्यारी ।
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इस इज़हार में इकरार
नज़रंदाज़ सा है कहीं ,
थामते रह गए ज़रूरत को ,
चाहत का नामोनिशान नहीं।
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ये बहुत पुरानी रचना है किसी के कहने पर फिर से पोस्ट कर रही हूँ ।
टिप्पणियाँ
फिर भी आज का इन्सान अपने विचारों को "चिरस्थायी" डंके की चोट पर कहने से नहीं चूकता, भले ही उसके चीथड़े कुछ ही दिनों में हवाओं के साथ उड़ने लगे.
सुन्दर, गहन विचारों की प्रस्तुति.
हार्दिक बधाई.
निराधार ही होते है ।
बेलगाम ख्यालो के संग
फिर भी
हवाओ में सफर तय
करते है ।
बहुत ही सटीक और वाजिब ख्याल
और अब मेरी बात ..
हर दिन एक ख़्वाब
मेरी आँखों में
उठ खड़ा होता है
जिसे मैं बड़ी बेरहमी से
हकीक़त की दीवार में
चुन देती हूँ !