न्याय
पहली रात की बिल्ली
मारना किसे चाहिए
मार कौन रहा था ।
सारे उम्र की बाज़ी
एक पल में लगा रहा था ।
पलड़े का भार
कही दिशा न बदल दे ,
सभी बाँटें अपने पलड़े पर चढ़ा रहा था ।
कांटे की नोंक को असंतुलित कर ,
अपनी ही ओर झुकाते जा रहा था ।
शायद वक्त ही उससे
ये करवा रहा था ।
और वक्त ही उसकी हरकत पर
टिप्पणियाँ
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गहरे अर्थ और सादगी से कही बात
बेहतरीन रचना
रहस्य प्रकट करता है।
बधाई।
der lagi pahoonchne main lekin jugat lagane ke baad pahunch hi gaya...
...chayavadi kavita ka adbhoot udharan !!
पहली रात की बिल्ली मारना किसे चाहिए मार कौन रहा था ।
गहरे अर्थ लिए है ये रचना आपकी.......... और सच ही कहा...... वक़्त ही तो सब करवाता है और फिर हंसता भी है उस पर
गहरी बात ,सच से मुलाकात ,काव्य सोन्दर्य को स्वतः समेटे , सच्चा जीवन दर्शन ,
मेरे प्राणों में पैठ कर गयी आपकी नूतन-प्राचीन का भेद मिटाने वाली काव्य-अभिव्यक्ती
एकात्म होते हुये युग में इंसान अब आत्मकेंद्रित हो रहा है, और उन्हीं भावों को बाखूबी अभारा है आपने।
और उसे वक्त/दौर या चलन का नाम देकर प्रासंगिक भी बनाये रक्खा है।
अच्छी रचना के लिये बधाई।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
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