धीरे - धीरे यह अहसास हो रहा है ,
वो मुझसे अब कहीं दूर हो रहा है।
कल तक था जो मुझे सबसे अज़ीज़ ,
आज क्यों मेरा रकीब हो रहा है।
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इन्तहां हो रही है खामोशी की ,
वफाओं पे शक होने लगा अब कहीं।
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जिंदगी है दोस्त हमारी ,
कभी इससे दुश्मनी ,
कभी है इससे यारी।
रूठने - मनाने के सिलसिले में ,
हो गई कहीं और प्यारी ।
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इस इज़हार में इकरार
नज़रंदाज़ सा है कहीं ,
थामते रह गए ज़रूरत को ,
चाहत का नामोनिशान नहीं।
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ये बहुत पुरानी रचना है किसी के कहने पर फिर से पोस्ट कर रही हूँ ।
टिप्पणियाँ
आपकी लिखी रचना आज शनिवार 20 मार्च 2021 को शाम 5 बजे साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन " पर आप भी सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद! ,
ज़िक्र हम तूफानों का
बस तुम स्वागत करो
आकांक्षाओं की वधु का
नावों को भी मोड़ दे देंगे
हवाओं के रुख का
साहिल पर भी बाँध देंगे
तुम्हारी उमंग भरी नाव को
हर तम को भगा बस
रोशन करेंगे ज्योति को ..
बहुत सकारात्मक रचना ... अच्छा लगा पढना और भावनाओं से जूझना भी :) :)
ऐसा मैंने कुछ नहीं किया , बस पढ़ते हुए जो भी मन में भाव उठते हैं यूँ ही लिख देती हूँ । आपका तो पुराना साथ है । किस्मत में होगा तो ज़रूर मुलाकात होगी । स्नेह
सुंदर मनोभाव।